Saturday, July 3, 2010

ग़ज़ल

जब भी बहती है हवा उनके दामन की
याद आती हैं मुझे बहार सावन की

नहीं है कोई गिला तेरी बेवफाई का
टीस उठती है मगर मेरे दिल में जलन की

कब से क़दमों में तेरे नज़रें बिछी हैं
कभी तो होगी इधर बहार गुलशन की

उम्र गुजरी है मेरी अश्कों के भंवर में
रंजो ग़म से सिली है पैराहन मेरे कफ़न की

जाम अब तोड़ दिया मेरी नज़र ने
ये खुमारी है तेरे बादा -ए - कुहन की

इस क़दर उन पे "जलील" शबाब छाया है
हर कली है पशेमां इस दुनियाए चमन की

- अब्दुल जलील

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